Dr Sharad Singh's Ghazal Book 'Patajhar Me Bheeg Rahi Ladaki

Friday, September 25, 2020

पिछले पन्ने की औरतें | उपन्यास | डॉ शरद सिंह

मेरी दीदी Dr Varsha Singh दैनिक आचरण में "पुनर्पाठ" कॉलम लिखती हैं। आज उन्होंने अपने कॉलम में मेरे पहले उपन्यास "पिछले पन्ने की औरतें को जगह दी है... जो यहां साझा कर रही हूं...


प्रिय मित्रों, 

               स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत आठवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर निवासी, राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात लेखिका डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, जो मेरी अनुजा भी हैं, के उपन्यास  "पिछले पन्ने की औरतें" का पुनर्पाठ।

Pichhale Panne Ki Auraten - Novel of Sharad Singh


सागर: साहित्य एवं चिंतन

       पुनर्पाठ: ‘पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास

                          -डॉ. वर्षा सिंह

                            Email-               drvarshasingh1@gmail.com


इस बार पुनर्पाठ में मैं जिस उपन्यास की चर्चा करने जा रही हूं उसका नाम है ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘। इस उपन्यास की लेखिका है डॉ. शरद सिंह। यह उपन्यास मुझे हर बार प्रभावित करता है इसलिए नहीं कि यह मेरी छोटी बहन शरद के द्वारा लिखा गया है बल्कि इसलिए कि इसे हिंदी साहित्य का बेस्ट सेलर उपन्यास और हिंदी साहित्य का टर्निंग प्वाइंट माना गया है। इसे बार-बार पढ़ने की ललक इसलिए भी जागती है कि इसमें एक अछूते विषय को बहुत ही प्रभावी ढंग से उठाया गया है। जी हां, इस उपन्यास में हाशिए में जी रही उन महिलाओं के जीवन की गाथा उनकी सभी विडंबनाओं के साथ सामने रखी गई है, जिन्हें हम बेड़नी के नाम से जानते हैं। समग्र हिन्दी साहित्य में स्त्रीविमर्श एवं आधुनिक हिन्दी कथा लेखन के क्षेत्र में सागर नगर की डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह का योगदान अतिमहत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने पहले उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ से हिन्दी साहित्य जगत में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज कराई। ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ उपन्यास का प्रथम संस्करण सन् 2005 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद अब तक इस उपन्यास के हार्ड बाऊंड और पेपर बैक सहित अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह न केवल पाठकों में बल्कि शोधार्थियों में भी बहुत लोकप्रिय है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में इस उपन्यास पर शोध कार्य किया जा चुका है और वर्तमान में भी अनेक विद्यार्थी इस उपन्यास पर शोध कार्य कर रहे हैं।

हिन्दी साहित्य में ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘ ऐसा प्रथम उपन्यास है जिसका कथानक बेड़नियों के जीवन को आाधार बना कर प्रस्तुत किया गया है। इस उपन्यास की शैली भी हिन्दी साहित्य के लिए नई है। यह उपन्यास अतीत और वर्तमान की कड़ियों को बड़ी ही कलात्मकता से जोड़ते हुए इसे पढ़ने वाले को वहां पहुंचा देता है जहां बेड़नियों के रूप में औरतें आज भी अपने पैरों में घंघरू बांधने के लिए विवश हैं। यह उपन्यास ‘‘रहस्यमयी श्यामा’’ से लेखिका की मुलाकात से आरम्भ होता है। कहने को तो यह मामूली सी घटना है कि लेखिका को सागर से भोपाल की बस-यात्रा के दौरान एक महिला सहयात्री मिलती है। लेकिन कथानक का श्रीगणेश ठीक वहीं से हो जाता है जब लेखिका को बातचीत में पता चलता है उस स्त्री का नाम श्यामा है और वह एक बेड़नी है। श्यामा राई नृत्य करती है और नृत्य करके अपने परिजन का पेट पालती है। यहीं से आरम्भ होती है एक जिज्ञासु यात्रा। इसके बाद लेखिका बेड़िया समाज के इतिहास और पारिवारिक संरचना पर अपनी शोधात्मक दृष्टि डालती है। वह स्वयं उन गांवों में जाती है जहां बेड़नियां रहती हैं। उनसे बात करती है, उनके जीवन को टटोलती है और उनके साथ, उनके घर पर रह कर उनके जीवन की बारीकियों को समझने का प्रयास करती है। यह एक बहुत बड़ा क़दम था। वाचिक और लिखित स्रोतों और ज़मीनी कार्यों के बीच तालमेल बिठाती हुई लेखिका शरद सिंह उपन्यास की अंतर्कथा के रूप में लिखती हैं गोदई की नचनारी बालाबाई की मर्मांतक कथा। जब एक गर्भवती बेड़नी को भी देह-पिपासु पुरुषों ने भावी मंा नहीं अपितु मात्र स्त्रीदेह के रूप में ही देखा। यह कथा मन को विचलित कर देती है। उपन्यास आगे बढ़ता है चंदाबाई, फुलवा के जीवन से होता हुआ रसूबाई के जीवन तक जा पहुंचता है। स्त्री को मात्र देह मानने वालों के द्वारा स्त्री के सम्मान और स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने, उन पर अत्याचार करने वालों की दुर्दांत कुचेष्टाएं झेलती ये स्त्रियां। जिनके बारे में शरद सिंह कहती हैं कि ये वे औरतें हैं जिन्हें समाज अपनी खुशियों को बढ़ाने के लिए अपने पारिवारिक उत्सवों में नाचने के लिए तो बुलाता है लेकिन इन्हें अपने परिवार में शामिल करने से हिचकता है। वह इनकी खुशियों से कतई सरोकार नहीं रखना चाहता है।

Article on Novel Pichhale Panne Ki Auraten by Dr Varsha Singh

इस उपन्यास का एक और पहलू है कि यह उपन्यास परिचित कराता है उस औरत से जिसने अल्मोड़ा में जन्म लिया, लेकिन अपने जीवन का उद्देश्य बेड़िया समाज के लिए समर्पित करते हुए ‘बेड़नी पथरिया’ नामक गंाव में ‘सत्य शोधन आश्रम’ की स्थापना की। उसका नाम था चंदाबेन। इस उपन्यास की खांटी वास्तविक पात्र हैं चंदाबेन, जिन्होंने अपने जीवन के विवरण को इस उपन्यास का हिस्सा बनने दिया। वस्तुतः ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘ एक उपन्यास होने के साथ-साथ यथार्थ का औपन्यासिक दस्तावेज़ भी है। इसमें बेड़िया समाज का इतिहास है, बेड़नियों के त्रासद जीवन का रेशा-रेशा है, बेड़नियों के संघर्ष का विवरण है, उनकी आकांक्षाओं एवं आशाओं का लेखा-जोखा है। यही तो है सच्चा स्त्रीविमर्श कि जब किसी उपन्यास में जीवन की सच्चाई को पिरो कर उसे सच के क़रीब ही रखा जाए, इतना क़रीब कि इस उपन्यास को पढ़ने वाला पाठक बेड़नियों की त्रासदी से उद्वेलित हुए बिना नहीं रह पाए और उपन्यास के अंतिम पृष्ठ तक पहुंचते हुए बेड़नियों के उज्ज्वल भविष्य की दुआएं करने लगे।    

परमानंद श्रीवास्तव जैसे समीक्षकों ने उनके इस उपन्यास को हिन्दी उपन्यास शैली का ‘‘टर्निंग प्वाइंट’’ कहा है। यह हिन्दी में रिपोर्ताजिक शैली का ऐसा पहला मौलिक उपन्यास है जिसमें आंकड़ों और इतिहास के संतुलित समावेश के माध्यम से कल्पना की अपेक्षा यथार्थ को अधिक स्थान दिया गया है। यही कारण है कि यह उपन्यास हिन्दी के ‘‘फिक्शन उपन्यासों’’ के बीच न केवल अपनी अलग पहचान बनाता है अपितु शैलीगत एक नया मार्ग भी प्रशस्त करता है। शरद सिंह जहां एक ओर नए कथानकों को अपने उपन्यासों एवं कहानियों का विषय बनाती हैं वहीं उनके कथा साहित्य में धारदार स्त्रीविमर्श दिखाई देता है।

‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ शरद सिंह द्वारा लिखित उनका पहला शोधपरक उपन्यास है जिसमें सामाजिक स्तरों में दबी-कुचली और पिछले पन्नों में दर्ज कर भुला दी गईं औरतों को मुखपृष्ठ पर लाने का सफल प्रयास किया है। तीन भागों और सत्ताईस उपभागों में लिखे गए उपन्यास के स्त्री पात्र महत्वपूर्ण हैं। किसी स्त्री की वेदना एवं पीडा को रिर्पोताज शैली में लेखन करना लेखिका की कुशलता का परिचायक है। विभिन्न औरतों से होकर संपूर्ण भारतीय औरतों के अस्तित्व, अधिकार पर लेखिका ने प्रकाश डाला है। ’पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास में शरदसिंह ने समाज की आन्तरिक और बाह्य परतों को खोलने का प्रयास किया वे समाज के कुरूप सत्य को बड़े ही बोल्ड ढंग से प्रस्तुत करती हैं उनकी लेखकीय क्षमता की विशेषता है कि वे जीवन और समाज के अनछुए विषयों को उठाती हैं।

जब भी मैं इस उपन्यास को पढ़ती हूं तो मुझे सुप्रसि़द्ध समीक्षक स्व. परमानंद श्रीवास्तव का वह समीक्षा-लेख याद आने लगता है जो उन्होंने ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ के बारे में लिखा था - “ रोमांस की मिथकीयता के लिए कोई भी कथा छलांग लगा सकती है। शरद सिंह का उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ बेड़िया समाज की देह व्यापार करने वाली औरतों की यातना भरी दास्तान है। शरद सिंह की प्रतिभा ‘तीली-तीली आग’ कहानी संग्रह से खुली। स्त्री विमर्श में उनका हस्तक्षेप और प्रामाणिक अनुभव अनुसंधान के आधार पर है। शरद सिंह वर्जना मुक्त हो कर इस अंधेरी दुनिया में धंसती हैं। उन्हें पता है कि स्त्री देह के संपर्क में हर कोई फायदे में रहना चाहता है। शरद सिंह ने ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबाफुले आदि के स्त्री जागरण को समझते हुए इस नरककुंड से सीधा साक्षात किया है। शरद सिंह को दुख है कि जब देश में स्त्री उद्धार के आंदोलन चल रहे थे तब बेड़िया जाति की नचनारी, पतुरिया-जैसी स्त्रियों की मुक्ति का सवाल क्यों नहीं उठा? नैतिकता के दावेदार कहां थे? विडम्बना यह कि जो पुरुष इन बेड़िया औरतों को रखैल बना कर रखते, उन्हीं के घर के उत्सवों में इन्हें नाचने जाना पड़ता था।......शरद सिंह का बीहड़ क्षेत्रों में प्रवेश ही इतना महत्वपूर्ण है कि एक बार ही नहीं, कई-कई बार इस कृति को पढ़ना जरूरी जान पड़ेगा। अंत में शरद सिंह के शब्द हैं- ‘लेकिन गुड्डी के निश्चय को देख कर मुझे लगा कि नचनारी, रसूबाई, चम्पा, फुलवा और श्यामा जैसी स्त्रियों ने जिस आशा की लौ को अपने मन में संजोया था, वह अभी बुझी नहीं है.....।’ शरद सिंह ने जैसे एक.सर्वेक्षण के आधार पर बेड़नियों के देहव्यापार का कच्चा चिट्ठा लिख दिया है। तथ्य कल्पना पर हावी है। शरद सिंह की बोल्डनेस राही मासूम रजा जैसी है। या मृदुला गर्ग जैसी। या लवलीन जैसी। पर शरद सिंह एक और अकेली हैं। फिलहाल उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी कथाक्षेत्र में नहीं है। ‘पिछले पन्ने की औरतें’’ उपन्यास लिखित से अधिक वाचिक (ओरल) इतिहास पर आधारित है। इस बेलाग कथा पर शील-अश्लील का आरोप संभव नहीं है। अश्लील दिखता हुआ ज्यादा नैतिक दिख सकता है। भद्रलोक की कुरूपताएं छिपी नहीं रह गई हैं। शरद सिंह के उपन्यास को एक लम्बे समय-प्रबंध की तरह पढ़ना होगा जिसके साथ संदर्भ और टिप्पणियों की जानकारी जरूरी होगी। पर कथा-रस से वंचित नहीं है यह कृति ‘पिछले पन्ने की औरतें’’। जब दलित विमर्श और स्त्री विमर्श केन्द्र में हैं, संसद में स्त्री सीटों के आरक्षण पर जोर दिया जा रहा हो पर पुरुष वर्चस्व के पास टालने के हजार बहाने हों- यह उपन्यास एक नए तरह की प्रासंगिकता अर्जित करेगा।”

निःसंदेह यह उपन्यास तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक औरतें समाज के पिछले पन्नों में क़ैद रखी जाएंगी। और अंत में मैं दे रही हूं बार-बार पढ़े जाने योग्य इस उपन्यास के आरम्भिक पन्ने में लिखी शरद सिंह की ही वे काव्य पंक्तियां जो एक नए स्त्रीविमर्श के पक्ष में आवाज़ उठाती हैं-

छिपी रहती है

हर औरत के भीतर

एक और औरत

लेकिन

लोग अक्सर

देखते हैं

सिर्फ बाहर की औरत।


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( दैनिक, आचरण  दि.19.09.2020)

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6 comments:

  1. सुंदर समीक्षा

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  2. परत परत खोलती समीक्षा |

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  3. हार्दिक शुभकामनाएं ।

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  4. जिज्ञासा जगाती सुन्दर समीक्षा...शुभकामनाएँ आप दोनों को !

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