Wednesday, September 6, 2017

प्रतिष्ठित साहित्यकार दिलबाग विर्क द्वारा मेरे उपन्यास ‘‘कस्बाई सिमोन’’ की समीक्षा

पंजाब के प्रतिष्ठित साहित्यकार दिलबाग विर्क जी ने मेरे उपन्यास ‘‘कस्बाई सिमोन’’ की बहुत विस्तृत, विश्लेषणात्मक एवं बेहतरीन समीक्षा की है। मैं उनकी हृदय से आभारी हूं। 

आप सभी उनके ब्लॉग पर समीक्षा को पढ़ सकते हैं जिसका लिंक है ... 

http://dsvirk.blogspot.in/2017/08/blog-post_30.html

समीक्षा का एक छोटा सा अंश ....

लिव इन रिलेशन की असलियत दिखाता उपन्यास


उपन्यास कस्बाई सिमोन
लेखिका शरद सिंह
प्रकाशक सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ – 208
कीमत – 150 /- ( पेपरबैक )

सेकेंड सेक्स की लेखिका सिमोन द बोउवार का जन्म पेरिस में हुआ | सिमोन ने और भी किताबें लिखी | उसने अपने प्रेमी ज्यां पाल सार्त्र के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया, लेकिन उसके साथ रही | इतना ही नहीं, उसके साथ रहते हुए दूसरे पुरुष से प्रेम भी किया | वह स्त्री स्वतन्त्रता की प्रबल समर्थक थी | उसका कहना था कि औरत को यदि स्वतन्त्रता चाहिए तो उसे पुरुष की रुष्टता को अनदेखा करना ही होगा | ’ सुगंधा भी इसी जीवन दर्शन को अपनाती है | उसके लेख भी नारी स्वतन्त्रता की बात करते हैं | सुगंधा नायिका है शरद सिंह के उपन्यास कस्बाई सिमोन की | सिमोन पेरिस में रहती थी, जबकि सुगंधा जबलपुर और सागर जैसे कस्बों में, इसलिए वह कस्बाई सिमोन है |

   ‘कस्बाई सिमोननामक उपन्यास फ्लैश बैक तकनीक में लिखा गया है | इस उपन्यास को सात अध्यायों में विभक्त किया गया है, लेकिन पहले शीर्षक का कोई नाम नहीं | दरअसल इसकी शुरूआत अंतिम अध्याय का हिस्सा है | सुगंधा रितिक को सोचते हुए अतीत में उतरती है | वह अपने बारे में भी रितिक के दृष्टिकोण से सोचती है

क्या मैं सचमुच वैसी हूँ, जैसा रितिक कहता है, ‘किसी भी पुरुष को देख कर लार टपकाने वाली ’?” ( पृ. -14 )

सुगंधा इस स्थिति में पहुंची हुई है कि जब भी किसी पुरुष को देखती है या किसी पुरुष के ताप को अनुभव करना चाहती है तो उसकी तुलना रितिक से करती है | बकौल सुगंधा

कभी-कभी तुलना इस सीमा तक जा पहुंचती है कि चुंबन, आलिंगन और काम की सभी कलाओं के दौरान वह मेरे और अन्य पुरुष के बीच आ खड़ा होता है, संजोए हुए अनुभव बनकर |” ( पृ. – 11 )

सुगंधा अपनी कहानी रितिक से संबंध समाप्त होने के बाद से सुनाना शुरू करती है | विवाह के बारे में वह बताती है

मैंने सोच रखा था कि मैं कभी विवाह नहीं करूंगी | मन के अनुभवों की छाप मेरे मन-मस्तिष्क पर गहरे तक अंकित थी | उसे मैं चाह कर भी मिटा नहीं सकती थी |” ( पृ. – 13 )

इसी छाप को मन पर संजोए उसकी मुलाक़ात रितिक से होती है, हालांकि दफ़्तर में कीर्ति के दबंग पति को देखकर शादी फायदे का सौदा भी लगती है, लेकिन यह बात उसका विचार नहीं बदलती |

पूरी समीक्षा पढ़ने के लिए ऊपर दिए लिंक पर जाएं....

4 comments:

  1. बेहतरीन उपन्यास के लिए आप बधाई की पात्र हैं । आपकी कलम ऐसे ही उत्कृष्ट साहित्य का सृजन करती रहे यही कामना है ।

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-09-17 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  3. bhut achha upnyas h bhut jivnt yatharth chitran h

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